Friday, July 29, 2011

swmi


पाप-पुण्य के बारे में कई बातें कही जाती है। कुछ लोग जिसे पाप मानते हैं, दूसरे उसे ही उचित या सही ठहरा देते हैं। जो बात किसी के लिये उसका कर्तव्य और धर्म है वह किसी के लिये घोर पाप या नीच कृत्य हो सकता है।

सरल और थोड़े से शब्दों में यदि पाप की परिभाषा देना हो तो कहा जा सकता है कि- अपने स्वार्थ यानी मतलब के लिये किसी को धोखा देना, उसका हक हड़पना, गुमराह करना और उसके आत्म सम्मान को ठेस पहुंचाना ही दुनिया का सबसे बड़ा पाप कर्म है।

आइये चलते हैं कि  एक बेहद सुन्दर कथा की ओर जो पाप के एक नए ही रूप से आपका परिचय कराती है....

स्वामी विवेकानंद अपने अमेरिका प्रवास से विदाई ले रहे थे। उनके भाषणों ने पूरे अमेरिका में धूम मचा रखी थी। सभागार सुनने वालों से खचाखच भरे होते थे। उनके व्याख्यानों में बम छूटते थे। लोगों के अंधविश्वासों और अवैज्ञानिक धारणाओं को स्वामी जी अपने अचूक तर्कों और वैज्ञानिक विश्लेषणों से तहस-नहस कर देते थे। आज इस बात की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि ईसाइयों के देश में यह अकेला हिन्दू संन्यासी कितने साहस और पौरुष के साथ भारतीय अध्यात्म की पताका फहरा रहा था।

ईसाई श्रोताओं के बीच हमारा यह योद्धा संन्यासी जोर से उद्घोष करता है-'' पश्चाताप मत करो( कन्फेशन), पश्चाताप मत करो.....यदि आवश्यक हो तो उसे थूक हो, परंतु आगे बढ़ो! बढ़ते चलो !! पश्चाताप के द्वारा अपने को बंधनों में मत डालो। अपने पवित्र, चिरमुक्त तथा परमात्मा के साकार रूप आत्मा को जानकर पाप के बोझ जैसा कुछ जो भी, उसे फेंक डालो। किसी को भी पापी कहने वाला खुद ईश्वर की निंदा करता है। तुम सभी सम्मोहित हो, इससे बाहर निकलो। याद रखो कि तुम सभी ईश्वर की दिव्य संतानें हो, अपनी महानता और दिव्यता को सदैव याद रखो। और उस दिव्यता के अनुरूप ही तुम्हारा जीवन होना चाहिये।''

स्वामी विवेकानंद के इन महान तेजस्वी विचारों का ही कमाल था कि उनके आध्यात्मिक विचार तेज गति से सारे संसार में फेल गए।