Friday, March 23, 2018


डा राम मनोहर लोहिया फिलोसोफी
  
राम, कृष्ण, शिव
राम, कृष्ण, शिव राम और कृष्ण और शिव हिंदुस्तान के उन तीन नामों में हैं- मैं उनको आदमी कहूं या देवता, इसके तो कोर्इ खास मतलब नहीं होंगे- जिनका असर हिंदुस्तान के दिमाग पर ऐतिहासिक लोगों से भी ज्यादा है। गौतम बुद्ध या अशोक ऐतिहासिक लोग थे। लेकिन उनके काम के किस्से इतने ज्यादा और इतने विस्तार में आपको नहीं मालूम हैं, जितने कि राम और कृष्ण और शिव के किस्से। कोर्इ आदमी वास्तव में हुआ या नहीं, यह इतना बड़ा सवाल नहीं है, जितना यह कि उस आदमी के काम किस हद तक, कितने लोगों को मालूम हैं, और उनका क्या असर है दिमाग पर। राम और कृष्ण तो इतिहास के लोग माने जाते हैं, हों या न हों, यह दूसरे दर्जे का सवाल है। मान लें थोड़ी देर के लिए, वे सिर्फ उपन्यास के लोग हैं। शिव तो केवल एक किंवदंती के रूप में प्रचलित हैं। यह सही है कि कुछ लोगों ने कोशिश की है कि शिव को भी कोर्इ समय और शरीर और जगह दी जाए। कुछ लोगों ने कोशिश की है यही साबित करने की कि वे उत्तराखंड के एक इंजीनियर थे जो गंगा को ले आये थे हिंदुस्तान के मैदान में। यह छोटे-मोटे सवाल हैं कि राम और कृष्ण और शिव सचमुच इस दुनिया में कभी हुए या नहीं। असली सवाल तो यह है कि इनकी जिंदगी के किस्सों के छोटे-छोटे पहलू को भी पांच, दस, बीस, पचास हजार आदमी नहीं, बलिक हिंदुस्तान के करोड़ों लोग जानते हैं। यह हिंदुस्तान के इतिहास के किसी और आदमी के बारे में नहीं कहा जा सकता। मैं तो समझता हूं, गौतम बुद्ध का नाम भी हिंदुस्तान में शायद पचीस सैकड़ा से ज्यादा लोगों को मालूम नहीं होगा। उनके किस्से जानने वाले तो मुशिकल से हजार में एक-दो मिल जाएं तो मिल जाएं लेकिन राम और कृष्ण और शिव के नाम और उनके किस्से तो सबको मालूम हैं। गंगदत्त इतना बेवकूफ नहीं है कि अब फिर से कुएं में आए, क्योंकि भूखे लोगों का कोर्इ धर्म नहीं हुआ करता है। 'हितोपदेश और 'पंचतंत्र के इन किस्सों से करोड़ों बच्चों के दिमाग पर कुछ चीजें खुद आया करती हैं और उसी पर नीतिशास्त्र बना करता है। मैं जिनका जिक्र आज कर रहा हूं, वे ऐसे किस्से नहीं हैं। उनके साथ नीतिशास्त्र सीधे नहीं जुड़ा हुआ है। ज्यादा से ज्यादा आप यह कह सकते हो कि किसी भी देश की हंसी और सपने ऐसे महान किंवदंतियों में खुदे रहते हैं। हंसी और सपने, इन दो से और कोर्इ बड़ी चीज दूुनिया में नहीं हुआ करती है। जब कोर्इ राष्ट्र हंसा करता है तो वह खुद होता है, उसका दिल चौड़ा होता हैै और जब कोर्इ राष्ट्र सपने देखता है, तो वह अपने आदर्शों में रंग भर कर किस्से बना लिया करता है। राम कृष्ण और शिव कोर्इ एक दिन के बनाये हुए नहीं हैं। इनको आपने बनाया। इन्होंने आपको नहीं बनाया। आम तौर से तो आप यही सुना करते हो कि राम और कृष्ण और शिव ने हिंदुस्तान या हिंदुस्तानियों को बनाया। किसी हद तक, शायद यह बात सही भी हो, लेकिन ज्यादा सही बात हो कि करोड़ों हिंदुस्तानियों ने, युग-युगांतर के अंतर में, हजारों बरस में, राम कृष्ण और शिव को बनाया। उनमें अपनी हँसी और सपने के रंग भरे और तब राम और कृष्ण और शिव जैसी चीजें सामने हैंं। राम और कृष्ण तो विष्णु के रूप हैं, और शिव महेश के। मोटी तौर से लोग यह समझ लिया करते हैं कि राम और कृष्ण तो रक्षा या अच्छी चीजों की हिफाजत के प्रतीक हैं, और शिव विनाश या बुरी चीजों के नाश के प्रतीक हैं। मुझे ऐसे अर्थ में नहीं पड़ना है। कुछ लोग हैं जिन्हें मजा आता है हरेक किस्से में अर्थ ढंूढ़ने में। मैं अर्थ ढ़ूँढ़ूँगा। मुमकिन है सारा कहना बेमतलब हो, और जितना बेमतलब होगा उतना ही मैं उसे अच्छा समझूगाँ, क्योंकि हँसी और सपने तो बेमतलब हुआ करते हैं। फिर भी, असर उनका कितना पड़ता है? छाती चौड़ी होती है। अगर कोर्इ कौम अपनी छाती मौके-मौके पर ऐसी किंवदंतियों को याद करके चौड़ी कर लेती हो तो फिर उससे बढ़ कर क्या हो सकता है? कोर्इ यह न सोचे कि इस विषय से मैं कोर्इ अर्थ निकालना चाहता हूँ- राजनीतिक अर्थ या दार्शनिक अर्थ या और कोर्इ समाज के गठन का अर्थ। जहाँ तक बन पडे़, पिछले हजारों बरसों में जो हमारे देश के पुरखों और हमारी कौम ने इन तीनों किंवदंतियों में अपनी बात डाली है, उसको सामने लाने की कोशिश करूंँगा। राम की सबसे बड़़ी महिमा उनके उस नाम से मालूम होती है, जिसमें कि उन्हें मर्यादा पुरूषोत्तम कह कर पुकारा जाता है। जो मन में आया सा नहीं कर सकते । राम की ताकर बँधी हुर्इ है, उसका दायरा खिंचा हुआ है। राम की ताकत पर कुछ नीति की शास्त्र की या धर्म की या व्यवहार की या, अगर आप आज की दुनिया का एक शब्द ढ़ूँढे ंतो विधान की मर्यादा हैं। जिस तरह से किसी भी कानून की जगह, जैसे विधान सभा या लोक सभा पर विधान रोक लगा दिया करता है, उसी तरह से राम के कामों पर रोक लगी हुर्इ है। यह रोक क्यों लगी हुर्इ हैं और किस तरह की है, इस बात में अभी आप मत पडि़ए। लेकिन इतना कह देना काफी होगा कि पुराने दकियानूसी लोग भी जो राम और कृष्ण को विष्णु का अवतार मानते हैं, राम को तो सिर्फ आठ कलाओं का अवतार मानते हैं और कृष्ण को सोलह कलाओं का अवतार। कृष्ण संपूर्ण और राम अपूर्ण! अपूर्ण शब्द सही नहीं होगा, लेकिन अपना मतलब बताने के लिए मैं इस शब्द का इस्तेमाल किये लेता हूँ। ऐसे मामलों में, कोर्इ अपूर्ण और संपूर्ण नहीं हुआ करता, लेकिन जाहिर है, जब एक में आठ कलाएँ होंगी और दूसरे में सोलह कलाएँ होंगी, तो उससे कुछ नतीजे तो निकल ही जाया करेंगे। 'भागवत में एक बड़ा दिलचस्प किस्सा है। सीता खोयी थी तब राम को दु:ख हुआ था। दुख जरा ज्यादा हुआ। किसी हद तक मैं समझ भी सकता हूँ, गो कि लक्ष्मण भी वहां पर था और देख रहा था। इसलिए राम का पेड़ों से बात करना और रोना वगैरह कुछ ज्यादा समझ में नहीं आता। अकेले अगर राम रो लेते, तो बात दूसरी थी, लेकिन लक्ष्मण के देखते हुए, पेड़ से बात करना और रोना वगैरह, जरा ज्यादा आगे बढ़ गयी बात। कौन जाने, शायद, वाल्मीकि और तुलसीदास को यही पसंद रहा हो। लेकिन याद रखना चाहिये कि वाल्मीकि और तुलसीदास में भी फर्क है। वाल्मीकि की सीता और तुलसीदास की सीता, दोनों में बिल्कुल दो अलग-अलग दुनिया का फर्क है। अगर कोर्इ इस पर भी एक किताब लिखना शुरू करे कि सीता हिंदुस्तान में तीन चार हजार बरस के दौरान में किस तरह बदली, तो वह बहुत ही दिलचस्प किताब होगी। अभी तक ऐसी किताबें लिखी नहीं जा रही हैं, लेकिन लिखी जानी चाहिए। खैर राम रोये, पेड़ों से बोले, दुखी हुए, और वक्त चंद्रमा हँसा था। जाने क्यों चंद्रमा को ऐसी चीजों में दिलचस्पी रहा करती है कि वह हँसा करता है, ऐसा लोग कहते हैं। वह खूब हँसा। कहा, देखो तो सही, पागल कैसे रो रहा है। राम विष्णु के अवतार तो थे ही, चाहे आठ कला वाले।विष्णु को बात याद थी। न जाने कितने बरसों के बाद कुछ लोग कहते हैं, लाखों बरसों के बाद, हजारों बरसों के बाद, लेकिन मेरी समझ में शायद हजार दो हजार बरस के बाद-जब कृष्ण के रूप में वे आये तो फिर एक दिन, हजारों गोपियों के बीच में कृष्ण ने भी अपनी लीला रचार्इ। वे 16,000 थीं या 12,000 थीं, इसका मुझे ठीक अंदाज नहीं। एक-एक गोपी के अलग-अलग से, कृष्ण सामने आये और बार-बार चंद्रमा की तरफ देख कर ताना मारा, बोले, अब हँसों। जो चंद्रमा राम को देख कर हँसा था जब राम रोये थे, उसी चंद्रमा को उँगली दिखा कर कृष्ण ने ताना मारा कि अब जरा हँसों, देखो तो सही। सोलह कला और आठ कला का यह फर्क रहा। राम ने मनुष्य की तरह प्रेम किया। मैं इस समय इस बहस में बिल्कुल नहीं पड़ना चाहता कि सचमुच कृष्ण ने ऐसा किया या नहीं किया। यह बिल्कुल फिजूल बात है। मैं शुरू में ही कह चुका हूँ ऐसी कहानियों का असर ढँ़ूढ़ा जाता है, यह देख कर नहीं कि वे सच्ची हैं या झूठी, लेकिन यह देख कर उनमें कितना सच भरा हुआ है, और दिमाग पर उनका कितना असर पड़ता है। यह सही है कि कृष्ण ने प्रेम किया, और ऐसा प्रेम किया कि बिल्कुल बेरोये रह गये, और तब चंद्रमा को ताना मारा।राम रोये तो चंद्रमा ने विष्णु को ताना मारा; कृष्ण 16,000 गोपियों के बीच में बाँसुरी बजाते रहे, तो चंद्रमा को विष्णु ने ताना मारा। ये किस्से मशहूर हैं। इसी से आप और नतीजे निकालिए। कृष्ण झूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं, धोखा देते हैं, और जितने भी अन्याय के, अधर्म के काम हो सकते हैं, वे सब करते है। जो कृष्ण के सच्चे भक्त होंगे, मेरी बात का बिल्कुल भी बुरा न मानेंगे। मुमकिन है कि एकाध नकली भक्त गुस्सा कर जाएं। एक बार जेल में मेरा साथ पड़ा था मथुरा के एक बहुत बड़े चौबे जी से और मथुरा तो फिर मथुरा ही है। जितना ही हम उनको चिढ़ाना चाहें, वे खुद अपने आप कह दें कि हाँ, वह तो माखनचोर था। कोर्इ क्या करे ऐसे आदमी को। हम कहें कृष्ण चोर था, वह कहें, हाँ, वह तो मााखनचोर था। हम कहें कृष्ण धोखेबाज था, तो वे जरूर कृष्ण को कोर्इ न कोर्इ झूठ दगा और धोखेबाजी और लम्पटपन को याद करके। सो क्यों? 16 कला हैं। मर्यादा नहीं, सीमा नहीं, विधान नहीें है, यह ऐसी लोकसभा है जिसके ऊपर विधान की कोर्इ रूकावट नहीं है, मन में आए सो करे। धर्म की विजय के लिए अधर्म से अधर्म करने को तैयार रहने का प्रतीक कृष्ण हैं। मैं यहाँ तो किस्से नहीं बतलाऊँगा, पर आप खुद याद कर सकते हो कि कब सूरज को छुपा दिया जब कि वह सचमुच नहीं छुपा था, कब एक जुमले के आधे हिस्से को जरा जोर से बोल कर और दूसरे हिस्से को धीमे बोल कर कृष्ण झुठ बोल गये। इस तरह की चालबाजियाँ तो कृष्ण हमेशा ही किया करते थे। कृष्ण सोलह कलाओं का अवतार, किसी चीज की मर्यादा नहीं। राम मर्यादित अवतार, ताकत के ऊपर सीमा जिसे वे उलाँघ नहीं सकते थे। कृष्ण बिना मर्यादा का अवतार। लेकिन इसके यह मानी नहीं कि जो कोर्इ झूठ बोले और धोखा करे वही कृष्ण हो सकता है। अपने किसी लाभ के लिए नहीं, अपने किसी राग के लिए नहीं। राग शब्द बहुत अच्छा शब्द है हिंदुस्तान का। मन के अंदर राग हुआ करते हैं, राग चाहे लोभ के हों, चाहे क्रोध के हों, चाहे र्इष्र्या के हों, राग होते हैं। तो यह सब, बीतराग, भय, क्रोध, जिसकी चर्चा हमारे कर्इ ग्रंथों में मिलती हैं, भय, क्रोध, राग से परे। धोखा, झूठ, बदमाशी और लम्पटपन कृष्ण का, एक ऐसे आदमी का था जिसे अपना कोर्इ फायदा नहीं ढ़ूँढ़ना था, जिसे कोर्इ लोभ नहीं था, जिसे र्इष्र्या नहीं थी। जिसे किसी के साथ जलन नहीं थी, जिसे अपना कोर्इ बढ़ावा नहीं करना था। यह चीज मुमकिन है या नहीं, इस सवाल को आप छोड़ दीजिए। असल चीज है, दिमाग पर असर कि यह संभव है या नहीं। हम लोग इसे संभव मानते भी हैं, और मैं खुद समझता हूँ कि अगर पूरा नही ंतो अधूरा, किसी न किसी रूप में यह चीज संभव है। कभी-कभी, आज के जमाने में भी राम और कृष्ण की तस्वीरें हिंदुस्तान के बड़े लोगों को समझते हुए आपकी आँखों के सामने नाचा करती होंगी। न नाचती हों तो अब आगे से नाचेंगी। एक बार मेरे दोस्त ने कहा था, गाँधी जी के मरने पर कि साबरमती या काठियावाड़ की नदियों का बालक जमुना के किनारे जलाया गया, और जमुना का बालक काठियावाड़ की नदियों के किनारे जलाया गया था। फासला दोनों में हजारों बरस का है। काठियावाड़ की नदियों का बालक और जमुना नदी का बालक, दोनों में शायद, इतना संबंध न दीख पाता होगा। मुझे भी नहीं दीखता था, कुछ अरसे पहले तक, क्योंकि गाँधी जी ने, खुद राम को याद किया और हमेशा याद किया। जब कभी गाँधी जी ने किसी नाम को लिया, तो राम का लिया। कृष्ण का नाम भी ले सकते थे। और शिव का नाम भी ले सकते थे वे। लेकिन नहीं। उन्हें एक मर्यादित तस्वीर हिंदुस्तान के सामने रखनी थी, एक ऐसी ताकत जो अपने ऊपर नीति, धर्म या व्यवहार की रूकावटों को रखे-मर्यादा पुरूषोत्तम का प्रतीक। मैंने भी सोचा था, बहुत अरसे तक, कि शायद गाँधी जी के तरीके कुछ मर्यादा के अंदर रह कर ही हुए। ज्यादातर यह बात सही भी है लेकिन पूरी सही भी नहीं है। और यह असर दिमाग पर तब पड़ता है जब आप गाँधी जी के लेखों और भाषणों को एक साथ पढ़ें। अंग्रेजों और जर्मनों की लड़ार्इ के दौरान में हर हफ्ते 'हरिजन में उनके लेख या भाषण छपा करते थे। हर हफ्ते उनकी जो बोली निकलती थी, उसमें इतनी ताकत और इतना माधुर्य होता कि मुझ जैसे आदमी को भी समझ में नहीं आता था कि बोली शायद, बदल रही है हर हफ्ते। बोली तो खैर हमेशा बदला करती है, लेकिन उसकी बुनियादें भी बदल गयींं ऐसा लगता था कृष्ण अपनी बोली की बुनियाद बदल दिया करते थे, राय नहीं बदलते थे ंकुछ महीने पहले का किस्सा है कि एकाएक मैंने, लड़ार्इ के दिनों में गाँधी जी ने जो कुछ लिखा था, हर हफ्ते से लगातार, दसमें से छ: महीनों की बातें एक साथ जब पढ़ी, तब पता चला कि किस तरह बोली बदल जाती थी। जिस चीज को आज अहिंसा कहा, उसी को दो-तीन महीने बाद हिंसा कह डाला और उसका उलटा, जिसे हिंसा कहा, उसे अहिंसा कह डाला। वक्ती तौर पर अपने संगठन के नीति-नियमों के मुताबिक जाने के लिये और अपने आदमियों की मदद पहुँचाने के लिए बुनियादी सिद्धांतों के बारे में भी बदलाव करने के लिए वे तैयार रहते थे। यह किया उन्होंने, लेकिन ज्यादा नहीं किया। मैं यह कहना चाहूँगा कि गाँधी जी ने कृष्ण का काम बहुत ज्यादा किया, लेकिन काफी किया। इससे कहीं यह न समझना कि गाँधी जी मेरी नजरों में गिर गये, कृष्ण मेरी नजरों में कहाँ गिर गयें ये तो ऐसी चीजें हैं जिनका सिर्फ सामना करना पड़ता है। गिरने-गिराने का तो कोर्इ सवाल है नहीं। लेकिन यह कि आदमी को अपनी कसौटियाँ हमेशा पैनी और साफ रखनी चाहिए कि जिससे पता चल सके कि जिस किसी चीज को उसने आदर्श बनाया है या जिन सिद्धांतों को अपनाया है, उन्हें वह सचमुच लागू किया करता है या नहीं। जैसे, साधनों की शुचिता या जिस तरह के मकसद हों, उसी तरह के तरीके हों, इन सिद्धांत को गाँधी जी ने न सिर्फ अपनाया बलिक बार-बार दुहराया। शायद इसी को उन्होंने अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा मकसद समझा कि अगर मकसद अच्छे बनाने हैं तो तरीके भी अच्छे बनाने पड़ेंगे। लेकिन आपको याद होगा कि किस तरह बिहार के भूकंप को अछूत प्रथा का नतीजा बता कर उन्होंने एक अच्छा मकसद हासिल करना चाहा था कि हिंदुस्तान से अछूत-प्रथा खत्म हो। बहुत बढि़या मकसद था, इसमें कोर्इ शक नहीं। उन दिनों जब रवीन्द्रनाथ ठाकुर और महात्मा गाँधी में बहस हुर्इ थी, तो मुझे एकाएक लगा कि रवींद्रनाथ ठाकुर क्यों यह तीन-पाँच कर रहे हैंं आखिर गाँधी जी कितना बड़ा मकसद हासिल कर रहे हैं। जाति-प्रथा मिटाना, हरिजन और अछूत-प्रथा मिटाना, इससे बड़ा और मकसद हो सकता है। लेकिन उस मकसद को हासिल करने के लिए कितनी बड़ी झूठ बोल गये कि बिहार का भूकंप हुआ इसलिए कि हिंदुस्तानी लोग आपस में अछूत प्रथा चलाते हैं। भला भूकंप और तारे और आसमान, पानी और सूरज वगैरह को भी इससे क्या पड़ा हुआ है कि हिंदुस्तान में अछूत प्रथा चलती है या नहीं चलती है। मैं, इस समय, बुनियाद तौर से राम और कृष्ण के बीच इस फर्क को सामने रखना चाहता हूँ कि एक तो मर्यादा पुरूषोत्तम है, एक की ताकतों के ऊपर रोक है, और दूसरा बिना रोक का, स्वयंभू है। यह सही है कि वह राग से परे है, राग से परे रह कर सब कुछ कर सकता है और उसके लिए कोर्इ नियम और उपनियम नहीं। शिव एक निराली अदा वाला है। दुनिया भर में ऐसी कोर्इ किंवदंती नहीं जिसकी न लंबार्इ है न चौड़ार्इ और मोटार्इ। एक फ्रांसिसी नहीं है। यानी ऐसी डाइमेंशनल मिथ है, (अँग्रेजी शब्द है, फ्राँसिसी नहीं) यानी ऐसी किंवदंती जिसकी कोर्इ सीमा नहीं है, जिसकी कोर्इ हदें नहीं हैं- न लंबार्इ, न चौड़ार्इ, न मोटार्इ। किंवदनितयाँ दुनिया में और जगह भी हैं, खास तौर से पुराने मुल्कों में जैसे फ्राँस आदि में हैं। कहाँ नहीं हैं? बिना किंवदनितयों के कोर्इ देश रहा ही नहीं, और जितने पुराने देश हैं उनमें किंवदनितयाँ ज्यादा हैं। मैंने शुरू में कहा था कि एक तरफ 'हितोपदेश और 'पंचतंत्र की गंगदत्त और प्रियदर्शन जैसी बच्चों की कहानियाँ है, तो दूसरी तरफ, हजारों बरस के काम के नतीजे के स्वरूप कुछ लोगों में कौम की हँसी और सपने भरे हुए हैं, ऐसी किंवदनितयाँ हैं। शिव ही एक ऐसी किंवदंती हैं जिसके न आगा है न पीछा। यहाँ तक कि वह किस्सा मशहूर है कि जब ब्रह्राा और विष्णु आपस में लड़ गये-ये देवी-देवता खूब लड़ा करते हैं, कभी-कभी आपस में-तो शिव ने उनसे कहा, लड़ो मत। जाओ तुममें से एक मेरे सिर का पता और दूसरा मेरे पैर का पता लगाए और फिर लौट कर आ कर मुझसे कहो। जो पहले पता लगा लेगा, उसकी जीत हो जाएगी। दोनों पता लगाने निकले। शायद अब तक पता लगा रहे हों। जो ऐसे किस्से-कहानियाँ गढ़ा करते हैं उनके लिए वक्त का कोर्इ मतलब नहीं रहता है। उनके लिए एक मिनट के मानी एक करोड़ बरस। कोर्इ हिसाब और गणित वगैरह का सवाल नहीं उठता उनके सामने। खैर, किस्सा यह है कि बहुत अरसे तक बाद, न जाने कितने लाखों बरस के बाद ब्रह्राा और विष्णु दोनों लौट कर आये और शिव से बोले कि भर्इ, पता तो नहीं लगा। तब उन्होंने कहा कि फिर क्यों लड़ते हो, फिजूल है। यह असीमित किंवदन्ती है। इसके बारे में, बार-बार मेरे दिमाग में एक ख्याल उठ आता है कि दुनिया में जितने भी लोग हैं, चाहे ऐतिहासिक और चाहे किंवदन्ती के, उन सबके कर्मों को समझने के लिए कर्म और फल, कारण और फल देखना पड़ता है। उनके जीवन में ऐसी घटनाएँ हैं कि जिन्हें एकाएक नहीं समझा जा सकता। वे अजब सी मालूम पड़ती है। तब जा करके वे सही मालूम पड़ती हैं। आप भी अपनी आपस की घटनाओं को सोच लेना। आपके आपस में रिश्ते होंगे। न जाने कितनी बातें होती होंगी। बड़े लोगों के मानी सिर्फ यह है कि जिनका नाम हो जाया करता है, और कोर्इ मतलब नहीं है, चाहे वे बदमाश ही लोग क्यों न हों, और आमतौर से, बदमाश लोगों का ही नाम हुआ करता है। खैर, बड़े लोग हों, छोटे लोग हों, कोर्इ हों, उनके आपसी रिश्ते होते हैं।उन आपसी रिश्तों के प्रकाश की एक श्रृंखला होती-एक कड़ी के बाद एक कड़ी, एक कड़ी के बाद एक कड़ी। अगर कोर्इ चाहे कि उनमें से किसी एक ही कड़ी को पकड़ कर पता लगाए कि आदमी अच्छा है या बुरा, तो गलती कर जाएगा क्योंकि उस कड़ी के पहले वाली कड़ी कारण के रूप में है और उसके बाद वाली कड़ी फल के रूप में है। क्यों किया? कर्इ बार ऐसे काम मालूम होते हैें जो लगते खुद बुरे हैं,गंदे हैं, या झूठे हैं। उदाहरण मैंने कृष्ण के लिए कहा वह सबके लिए है। लेकिन वह काम क्यों हुआ, उसका कारण क्या था और उसको करने के बाद परिणाम देखना, हर आदमी और हर किस्से और सीमित किंवदंती को समझने के लिए जरूरी होता है। शिव ही ऐसी किंवदंती है जिसका हरेक काम खुद अपने औचित्य को अपने आप में रखता है। कोर्इ भी काम आप शिव का ढूँढ़ लो, वह उचित काम होगा। उसके लिए पहले की कोर्इ कड़ी नहीं ढूँढनी पड़ेगी और न बाद की कोर्इ कड़ी । क्यों शिव ने ऐसा किया, उसका क्या नतीजा निकला, यह सब देखने की कोर्इ जरूरत नहीं होगी। औरों के लिए इसकी जरूरत पड़ जाएगी। राम के लिए जरूरत पड़ेगी, कृष्ण के लिए जरूरत पड़ेगी। दुनिया में हरेक आदमी के लिए जरूरत पड़ेगी, और जो दुनिया भर के किस्से हैं,उनके लिए जरूरत पड़ेगी। क्यों उसने ऐसा किया? पहले की बात याद करनी होगी कि क्या बातें हुर्इं, क्या कारण था, किसलिए उसका यह काम हुआ और फिर उसके क्या नतीजे निकले। हमेशा दूसरे लोगों के बारे में कर्म और फल की एक पूरी कड़ी बँधती है। लेकिन मुझे तो ढ़ूँढ़ने पर भी, शिव का ऐसा कोर्इ काम नहीं मालूम पड़ा कि मैं कह सकूँ कि उन्होंने क्यों ऐसा किया; ढ़ूँढ़ो, उसका क्या कारण था; ढूँढ़ो, बाद में उसका क्या परिणाम निकला। यह चीज बहुत बड़ी है। आज की दुनिया में प्राय: सभी लोग अपने मौजूदा तरीके को, गंदे कामों को उचित बताते हैं, यह कह कर कि आगे चल कर उसके परिणाम अच्छे निकलेंगे। वे एक कड़ी बाँधते हैं। आज चाहे वे गंदे काम हों, लेकिन हमेशा उसकी कड़ी जोड़ेंगे कि भविष्य में कुछ ऐसे नतीजे उसके निकलेंगे कि वह काम अच्छे हो जाएँगे। कारण और फल की ऐसी श्रृंखला खुद अपने दिमाग में बाँधते हैं, और दुनिया के दिमाग में बाँधते हैं कि किसी भी काम के लिए कोर्इ कसौटी नहीं बना सकती मानवता। आखिर कसौटियाँ होनी चाहिए। काम अच्छा है या बुरा, इसका कैसे पता लगाएँगे। कोर्इ कसौटियाँ होनी ही चाहिए। अगर एक के बाद एक कड़ी बाँध दें तो फिर कोर्इ कसौटी नहीं रह जाती। फिर तो मनमानी होने लग जाती है, क्योंकि जितनी लंबी जंजीर हो जाएगी, उतना ही ज्यादा मौका मिलेगा लोगों को अपनी मनमानी बात उसके अंदर रखने का। ऐसा दर्शन बनाओ, ऐसा सिद्धांत बनाओ कि जिसमें मौजूदा घटनाओं को जोड़ दिया जाए, किसी बड़ी, दूर भविष्य की घटना से, तो मौजूदा घटनाओं में कितना ही गंदापन रहे, लेकिन उस दूर के भविष्य की घटना, जो होनेवाली है, जिसके बारे में कोर्इ कसौटी बन नहीं सकती कि वह होगी या नहीं होगी इसके बारे में बहुत हद तक आदमी को मान कर चलना पड़ता है कि वह शायद होगी, उसको लेकर मोजूदा घटनाओं का औचित्य या अनौचित्य ढ़ूँढा जाता है। और यह हमेशा हुआ है। मैं यहां मौजूदा दुनिया के किस्से तो बताऊँगा नहीं, लेकिन इतना आपसे कह दूँ कि प्राय: यह जरा अति बोली है, लेकिन प्राय: हरेक राजनीति की, समाज की, अर्थशास्त्र की घटना ऐसी ही है कि जिसका औचित्य या तो कोर्इ पुरानी या कोर्इ आगे आने वाली किसी जंजीर के साथ बँध जाता है। यहां मैं सिर्फ कृष्ण का ही किस्सा बता देता हूं कि अश्वत्थामा के बारे में धीमे से बोलना या जोर से बोलने के औचित्य और अनौचित्य को, कौरव-पांडवों की लड़ार्इ से बहुत पुराना किस्सा, बहुत आगे आने, वाली घटना के साथ जोड़ दिया जाता है। यह खुद बुरा काम है, मान कर चलना पड़ता है। लेकिन उस बुरे काम का औचित्य साबित हो जाता है पुराने कारण से और भविष्य में आनेवाले परिणाम से। आप शिव का ऐसा कोर्इ किस्सा नहीं पाओगे। शिव का हरेक किस्सा अपने आप उचित है। उसी के अंदर सब कारण और सब फल भरे हुए हैं। जिससे मालूम पड़ता है कि वह सही है, ठीक है, उसमें कोर्इ गलती हो नहीं सकती। मुझे शिव के किस्से यहाँ नहीं सुनाने हैं। मशहूर तो बहुत है। शायद, पार्वती को अपने कंधे पर लादे फिरनेवाला किस्सा, इतनी तफसील में कि पार्वती के शरीर का कौन सा अंग कहाँ गिरा और कौन सा मंदिर कहाँ बना, सबको मालूम है। गौतम बुद्ध और अशोक के बारे में या अकबर के बारे में ऐसे किस्से नहीं मशहूर हैं। शिव के वे सब किस्से बहुत मशहूर हैं और अच्छी तरह से लोगों को मालूम हैं। अगर नहीं मालूम हों तो जरा ये किस्से सुन लिया करो, अभी आपकी दादी जिंंदा होगी तो उससे।दादी जिंदा न हो तो नानी जिंदा होगी, कोर्इ न कोर्इ होगी, और अगर वह भी न हो, तो अपनी बीबी से सुन लिया करो। शिव का कोर्इ भी किस्सा अपने आप उचित है। ऐसा लगता है कि जैसे किसी आदमी की जिंदगी में चाहे हजारों घटनाएँ हुर्इ हों और उनमें से एक-एक घटना खुद एक जिंदगी है। उसके लिए पहले की दूसरी घटना और आगे की दूसरी घटना की कोर्इ जरूरत नहीं रहती। शिव बिना सीमा की किंवदंती है और बहुत से मामलों में छाती को बहुत चौड़ा करनेवाली, और उसके साथ-साथ आदमी को एक उँगली की तरह रास्ता दिखानेवाली कि जहाँ तक बन पड़े, तुम अपने हरेक काम को बिना पहले के कारण और बिना आगे के परिणाम को देखते हुए भी उचित बनाओ। हो सकता है, राम और कृष्ण और शिव, इन तीनों को लेकर कइयों के दिमाग में अलगाव की बातें भी उठती हों। मैं आपके सामने अभी एक विचार रख रहा हूं। जरूरी नहीं है कि इसको आप मान ही लें। हरेक चीज को मान लेने से ही दिमाग नहीें बढ़ा करता। उसको सुनाना, उसको समझने की कोशिश करना और फिर उसको छोड़ देने से भी , कर्इ दफे, दिमाग आगे बढ़ा करता हैं मैं खुद भी इस बात को पूरी तरह से अपनाता हूँ सो नहीं। एकाएक एक बार मैंने जब 1951-52 के आम चुनावों के नतीजों पर सोचना शुरू किया तो मेरे दिमाग में एक अजीब सी बात आयी। आपको याद होगा कि 1951-52 में हिंदुस्तान में आम चुनाव में एक इलाका ऐसा था कि जहाँ कम्युनिस्ट जीते थे, दूसरा इलाका ऐसा था जहां सोशलिस्ट जीते थे, तीसरा इलाका ऐसा था जहां धर्म के नाम पर कोर्इ न कोर्इ संस्था जीती थी। यों, सब जगह काँगे्रस जीती थी और सरकार उसी की रही। मैं इस वक्त सबसे बड़ी पार्टी की बात नहीं कह रहा। नंबर दो पार्टी की बात कह रहा हूं। सारे देश में नंबर वन पार्टी तो कांग्रेस रही। लेकिन हिंदुस्तान के इलाके कुछ ऐसे साफ से थे जहां पर ये तीनों पार्टियाँ जीतीं, अलग-अलग, यानी कहीं पर कम्युनिस्ट नंबर दो पर रहे,कहीं पर सोशलिस्ट नंबर दो पर रहे और कहीं पर ये जनसंघ, रामराज्य परिषद वगैरह मिला-जुला कर-इन सबको तो एक ही समझना चाहिए-नंबर दो रहे। मैं यह नहीं कहता कि जो कुछ मैं कह रहा हूँ वह सही है। मुमकिन है, इसके ऊपर अगर हिंदुस्तान के कालेज और विश्वविधालय जरा दिमाग कुछ चौड़ा करके देखते, कुछ तफरीही दिमाग से, क्योंकि तफरीह में भी कर्इ चीजें की जाती हैं, चाहे वे सही निकलें, न निकलें- तो हिंदुस्तान के नक्शे के तीन हिस्से बनाते। एक नक्शा वह, जहां राम सबसे ज्यादा चला हुआ है, दूसरा वह, जां कृष्ण सबसे ज्यादा चला हुआ है। तीसरा वह जहां शिव सबसे ज्यादा चला हुआ है। मैं जब राम, कृष्ण और शिव कहता हूं तो जाहिर है उनकी बीबियों को शामिल कर लेता हूं। उनके नौकरों को भी शामिल कर लेना चाहिए क्योंकि ऐसे भी इलाके हैं जहां हनुमान चलता है जिसके साफ माने हैं कि वहां राम चलता है; ऐसे इलाके हैं जहां काली और दुर्गा चलती हैं, इसके साफ माने हैं कि वहां शिव चलता है। हिंदुस्तान के इलाके हैं जहां पर इन तीनों ने अपना दिमाग साम्राज्य बना रखा है। दिमागी साम्राज्य भी रहा करता है। विचारों का, किंवदनितयों का। मोटी तौर पर शिव का इलाका वह इलाका था जहां कम्युनिस्ट नंबर दो हुए थे, मोटी तौर पर। उसी तरह कृष्ण का इलाका वह था जहां संघ और रामराज्य परिषद वाले नंबर दो हुए थे मोटी तौर पर राम का इलाका वह था जहां सोशलिस्ट नंबर दो हुए थे। मैं जानता हूं कि मैं खुद चाहूं तो इस विचार को एक मिनट में तोड़ सकता हूं, क्योंकि ऐसे बहुत से इलाके मिलेंगे जो जरा दुविधा के रहते हैं। किसी बड़े ख्याल को तोड़ने के लिए छोटे-छोटे अपवाद निकाल देना कौन सी बड़ी बात है। खैर, मोटी तौर पर मुझे ऐसे लगता है कि किंवदनितयों के इन तीन साम्राज्यों के मुताबिक ही हिंदुस्तान की जनता ने अपनी विरोधी शकितयों को चुनने की कोशिश की। आप कह सकते हैं कि अभी तो तुमने शिव की बड़ी तारीफ की थी। तुम्हारा यह शिव कैसा निकला। जहां पर शिव की किंवदंती का साम्राज्य है, वहां तो कम्युनिस्ट जीत गये। तो, फिर मुझे यह भी कहना पड़ता है कि जरूरी नहीं है कि इन किंवदनितयों के अच्छे ही असर पड़ते हैं, सब तरह के असर पड़ सकते हैं। शिव अगर नीलकण्ठ हैं और दुनिया के लिए अकेले जहर को अपने गले में बाँध सकते हैं तो उसके साथ-साथ-धतूरा खाने और पीने वाले भी हैं। शिव की दोनों तस्वीरें साथ-साथ जुड़ी हुर्इ हैं। मान लो, थोड़ी देर के लिए, वे धतूरा न भी खाते रहे हों। फिर से मंै बता दूँ कि ये सवाल सच्चार्इ और झूठार्इ के नहीं है। यह तो सिर्फ किसी आदमी के दिमाग का एक नक्शा है। हिंदुस्तान में करोड़ों लोग समझते हैं कि शिव धतूरा पीते हैं, शिव की पलटन में लूले-लंगड़े हैं, उसमें तो जानवर भी हैं, भूत-प्रेत भी हैं और सब तरह की बातें जुड़़ी हुर्इ हैं। लूले-लंगड़े, भूखे के मानी क्या हुए? गरीबों का आदमी। शिव का वह किस्सा भी आपको याद होगा कि शिव ने सती को मना किया था कि देखो तुम अपने बाप के यहां मत जाओ, क्योंकि उसने तुमको बुलाया नहीं। बहुत बढि़या किस्सा है यह। शिव ने कहा था कि जहां पर विरोध हो गया हो वहां पर बिना बुलाए मत जाओ, उसमें कल्याण नहीं हुआ करता है। पर फिर भी सती गयी। यह सही है कि उसके बाद शिव ने अपना, वक्ती तौर पर जैसा मैंने कहा, वही काम खुद अपने आप में उचित है-बहुत जबरदस्त गुस्सा दिखाया था। और उसकी पलटन कैसी थी! पटटपावके किशोर चंद्र शेखरे..... शिव की जो तस्वीरें अक्सर आँखों के सामने आती हैं वह किस तरह की हैंं जटा मेें चंद्रमा है, लेकिन लपटें ज्वाला को निगल रही हैं, धगद्धगद हो रहा है। सब तरह की, एक बिना सीमा की किंवदंती सामने खड़ी हो जाती है-शकित की, फैलाव की, सब तरह के लोगों को साथ समेटने की। इसी तरह, जाहिर है, कृष्ण और राम की किंवदनितयों के भी दूसरे स्वरूप हैं। राम चाहे जितने ही मर्यादा पुरूषोत्तम रहे हों लेकिन अगर उनके किस्से का मामला बैलगाड़ी पुरानी लीक तक ही फँस कर रह जाए तो फिर उनके उपासक कभी आगे बढ़ नहीं सकते। वे लकीर में बँधे रह जाएंगे। यह सही है कि राम के उपासक, शायद, बहुत बुरा काम नहीं करेंगे, क्योंकि बुरार्इ करने में भी वे मर्यादा से बंधे हैं, अगर अच्छार्इ करने में मर्यादा से बंधे हुए हैं तो। वे दोनों तरफ बंधे हुए हैंं शिव या कृष्ण में इस तरह बंधन का कोर्इ मामला नहीं है। कृष्ण में तो किसी भी नीति के बंधन का मामला नहीं है। और शिव में हर एक घटना खुद इतने महत्त्व की हो जाती है कि अपनी संपूर्ण शकित उसमें लगाकर, उस वक्त भी पूरी हद तक पहुंच सकते हैं या उससे बाहर, और उसके बाद जैसा कि दक्षिण वालों को तो यह कहीं ज्यादा मालूम होगा, उत्तर वालों के मुकाबले में। तांडव की भी कोर्इ बुनियाद होती है: एक गाढ़ निंद्रा-एकाएक आंखें खुलीं, लीला देखी, ली के साथ-साथ आँखें इधर-उधर मटकायीं और देख कर फिर आंखें बंद हो गयीं। फिर, मुमकिन है, एक दूसरी सतह पर आंख बंद हुर्इ और लीला हुर्इ और चली गयी, आंखें खुली और बंद हुर्इ। इससे एक तामस भी जुड़ा हुआ है। शांति सतोगुण का प्रतीक है। लेकिन अगर शांति कहीं बिगड़ना शुरू हो जाए तो फिर वह तामस का रूप ले लिया करती है। चुप बैठो, कुछ करो मत, धगघ्दगद होता रहे, धतूरा या धतूरे के प्रतीक की कोर्इ न कोर्इ चीज चलती रहे। और हमारे देश में अकर्मण्यता का तो बहुत जबरदस्त दार्शनिक आधार है, कर्म नहीं करने का। यह सभी है कि अलग-अलग मौकों पर हिंदुस्तान के इतिहास में अलग-अलग दार्शनिकों ने कर्म के सिद्धांत को अपने हिसाब से समझने की कोशिश की है। लेकिन बुनियादी तौर पर हिंदुस्तान का
 असली कर्म-सिद्धांत यही है कि जहां तक बन पड़े अपने आप को कर्म की फांसी से रिहा करो। यह सही है कि जो पुराने संचित कर्म हैं, उनसे तो छूट सकते नहीं, उनको तो भुगतना पड़ेगा, वे तो और नये कर्मों में आएँगे ही, लेकिन कोशिश यह करो कि नये कर्म न आएँ। हिंदुस्तान की सभ्यता का यह मूलभूत आधार कभी नहीं भूलना चाहिए, कि नये काम मत करो, पुराने कामों को भुगतना ही पड़ेगा और जब कामों की श्रृंखला अटूट जाएगी तभी मोक्ष मिलेगा। और शिव जैसी किंवदंती और इस तरह के विचार के मिल जाने के बाद, कर्इ बार तामस भी आ जाता है- उसके साथ-साथ एकाएक कोर्इ विस्फोट हो जाया करता है