जब भीमसेन ने दुर्योधन की जंघाओं पर वार किया और दुर्योधन की दशा खराब हो गई तो उसकी दशा देख उनकी आंखे क्रोध से लाल हो गई। वे कृष्ण से कहने लगे- कृष्ण दुर्योधन मेरे समान बलवान है इसकी समानता करने वाला कोई नहीं हे। आज अन्याय करके दुर्योधन को गिराया गया है।तब श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाया कि जब दुर्योधन ने द्रोपदी के साथ र्दुव्यहार किया था तब भीम ने प्रतिज्ञा की थी कि वे अपनी गदाओं से दुर्योधन की जंघाओं को तोड़ देंगे अब आगे....
दुर्योधन को भीमसेन के द्वारा मारा गया देख पांडव व पांचालों को बड़ी प्रशंसा हुई। वे सिंहनाद करने लगे। किसी ने धनुष टंकारा तो कोई शंख बजाने लगा। उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने कहा मरे हुए शत्रु को अपनी कठोर बातों से फिर मारना उचित नहीं है। कृष्ण बोले यह मर तो उसी दिन गया था जब इसने लज्जा को त्यागकर पापियों के समान काम करना शुरू कर दिया था। श्रीकृष्ण की बात सुनकर सब नरेश अपने-अपने शंख बजाते हुए शिविर को चले गए। सब लोग पहले दुर्योधन की छावनी में गए वहां कुछ बूढ़े मंत्री और किन्नर बैठे थे बाकि रानियों के साथ राजधानी चले गए थे। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- तुम स्वयं उतरकर अपने अक्षय तरकस व धनुष को भी रथ से उतार लो। इसके बाद में उतारूंगा यही करने में तुम्हारी भलाई है। अर्जुन ने वैसा ही किया। फिर भगवान ने घोड़ों की बागडोर छोड़ दी और स्वयं भी रथ से उतर पड़े। जैसे ही कृष्ण रथ से उतरे ही उस रथ पर बैठा हुआ दिव्य कपि अंर्तध्यान हो गया।
उसके सारे उपकरण व धुरी लगाम, घोड़े जलकर नष्ट हो गए। यह देख सभी पांडवों को बहुत आश्चर्य हुआ। यह देखकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा हे प्रभु यह क्या आश्चर्य जनक घटना हो गई। एकाएक रथ क्यों जल गया? यदि मेरे सुनने योग्य हो तो इसका कारण बताइए। श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन लड़ाई में बहुत तरह के अस्त्रों के आघात से यह रथ तो पहले ही जल चुका था। सिर्फ बैठे रहने के कारण भस्म नहीं हुआ था। जब तुम्हारा सारा काम पूरा हो गया तब मैंने इस रथ को छोड़ा।
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