सरदार पटेल की विलक्षण उपलब्धि
Posted: Sun, 11 Nov 2012 02:42:36 +0000

पुरस्कार विजेता इतिहासकार विलियम डलरिम्पल ने इस पुस्तक को ‘एक श्रेष्ठ कृति‘ और ”स्वतंत्रता तथा भारत व पाकिस्तान विभाजन पर मेरे द्वारा पढ़ी गई निस्संदेह उत्तम पुस्तक” के रुप में वर्णित किया है।
जब भारत पर अंग्रेजी राज था तब देश एक राजनीतिक इकाई नहीं था। इसके दो मुख्य घटक थे: पहला, ब्रिटिश भारत; दूसरा,रियासतों वाला भारत। रियासतों वाले भारत में 564 रियासतें थी।
वी.पी. मेनन की पुस्तक: दि स्टोरी ऑफ इंटग्रेशन ऑफ दि इण्डियन स्टेट्स में प्रसिध्द पत्रकार एम.वी. कामथ ने लेखक के बारे में यह टिप्पणी की है:

”वीपी के प्रारम्भिक जीवन के बारे में कम जानकारी उपलब्ध है। एक ऐसा व्यक्ति जो सभी व्यवहारिक रुप से पहले,अंतिम वायसराय लार्ड लुईस माउंटबेटन और बाद में,, भारत के लौह पुरुष महान सरदार वल्लभ भाई पटेल के खासमखास बने, ने स्वयं गुमनामी में जाने से पहले अपने बारे में बहुत कम जानकारी छोड़ी। यदि वह सत्ता के माध्यम से कुछ भी पाना चाहते तो जो मांगते मिल जाता।”
यह पुस्तक वी.पी. मेनन द्वारा भारतीय इतिहास के इस चरण पर लिखे गए दो विशाल खण्डों में से पहली (1955) है। दूसरी पुस्तक (1957) का शीर्षक है: दि ट्रांसफर ऑफ पॉवर इन इण्डियाA
जिस पुस्तक ने मुझे आज का ब्लॉग लिखने हेतु बाध्य किया, उसमें रियासती राज्यों के मुद्दे पर ‘ए फुल बास्केट ऑफ ऐप्पल्स‘शीर्षक वाला अध्याय है। इस अध्याय की शुरुआत इस प्रकार है:
”18 जुलाई को राजा ने लंदन में इण्डिया इंटिपेंडेंस एक्ट पर हस्ताक्षर किए और माउंटबेटन दम्पति ने अपने विवाह की रजत जयंती दिल्ली में मनाई, पच्चीस वर्ष बाद उसी शहर में जहां दोनों की सगाई हुई थी।”

माउन्टबेंटन ने इसका अर्थ यह लगाया कि वह प्रत्येक राजवाड़े पर दबाव बना सकें कि वह भारत या पाकिस्तान के साथ जाने हेतु अपनी जनता के बहुमत के अनुरुप निर्णय करें। उन्होंने पटेल को सहायता करना स्वीकार किया और 15 अगस्त से पहले ‘ए फुल बास्केट ऑफ ऐपल्स‘ देने का वायदा किया।

इस समूचे प्रकरण में मुस्लिम लीग की रणनीति इस पर केंद्रित थी कि अधिक से अधिक रजवाड़े भारत में मिलने से इंकार कर दें। जिन्ना यह देखने के काफी इच्छुक थे कि नेहरु और पटेल को ”घुन लगा हुआ भारत मिले जो उनके घुन लगे पाकिस्तान” के साथ चल सके। लेकिन सरदार पटेल, लार्ड माउंटबेंटन और वी.पी. मेनन ने एक ताल में काम करते हुए ऐसे सभी षडयंत्रों को विफल किया।
इस महत्वपूर्ण अध्याय की अंतिम पंक्तियां इस जोड़ी की उपलब्धि के प्रति एक महान आदरांजलि है। ऑलेक्स फॉन टुनेसलेमान लिखती हैं:

जो जर्मन महिला ने जो अर्थपूर्ण ढंग से लिखा है उसकी पुष्टि वी.पी. मेनन द्वारा दि स्टोरी ऑफ इंटीगिरेशन ऑफ दि इण्डियन स्टेट्स‘ के 612 पृष्ठों में तथ्यों और आंकड़ों से इस प्रकार की है।

स्टेट्स के एकीकरण सम्बंधी अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में वी.पी. मेनन लिखते हैं: यह पुस्तक स्वर्गीय सरदार वल्लभभाई पटेल को किए गए वायदे की आंशिक पूर्ति है। यह उनकी तीव्र इच्छा थी कि मैं दो पुस्तकें लिखूं, जिसमें से एक में उन घटनाओं का वर्णन हो जिनके चलते सत्ता का हस्तांतरण हुआ और दूसरी भारतीय स्टेट्स के एकीकरण से सम्बन्धित हो।
टेलपीस (पश्च्यलेख)
30 अक्टूबर, 2012 को सरदार पटेल की जयंती की पूर्व संध्या पर ‘पायनियर‘ ने एक समाचार प्रकाशित किया कि कैसे प्रधानमंत्री नेहरु हैदराबाद की मुक्ति के सरदार की योजना को असफल करना चाहते थे।
समाचार इस प्रकार है:
”तत्कालीन उपप्रधानमंत्री और भारत के गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल जिनकी 137वीं जयंती 31 अक्टूबर को है, को तब के प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरु द्वारा एक केबिनेट मीटिंग के दौरान अपमानित और लांछित किया गया। ”आप एक पूर्णतया साम्प्रदायिक हो और मैं तुम्हारे सुझावों और प्रस्तावों के साथ कभी पार्टी नहीं बन सकता”-नेहरु एक महत्वपूर्ण केबिनेट बैठक में सरदार पटेल पर चिल्लाए जिसमें निजाम की निजी सेना-रजाकारों के चंगुल से, सेना की कार्रवाई से हैदराबाद की मुक्ति पर विचार हो रहा था।
हतप्रभ सरदार पटेल ने मेज पर से अपने पेपर इक्ट्ठे किए और धीरे-धीरे चलते हुऐ कैबिनेट कक्ष से बाहर चले गए। यह अंतिम अवसर था जब पटेल ने कैबिनेट बैठक में भाग लिया। 1947 बैच के आईएस अधिकारी एम के नायर ने अपने संस्मरण ”विद नो इल फीलिंग टू एनीबॉडी” में लिखा है कि ”उन्होंने तब से नेहरु से बोलना भी बंद कर दिया।”
हालांकि नायर ने उपरोक्त वर्णित कैबिनेट बैठक की सही तिथि नहीं लिखी है, परन्तु यह हैदराबाद मुक्ति के लिए चलाए गए भारतीय सेना के अभियान ऑपरेशन पोलो, जो 13 सितम्बर, 1948 को शुरु होकर 18 सितम्बर को समाप्त हुआ, के पूर्ववर्ती सप्ताहों में हुई होगी।
जबकि सरदार पटेल 2,00,000 रजाकारों के बलात्कार और उत्पात से हैदराबाद को मुक्त कराने के लिए सेना की सीधी कार्रवाई चाहते थे, उधर नेहरु संयुक्त राष्ट्र के विकल्प को प्राथमिकता दे रहे थे।
नायर लिखते हैं कि सरदार पटेल के प्रति नेहरु की निजी घृणा 15 सितम्बर, 1950 को उस दिन और खुलकर सामने आई जिस दिन सरदार ने बॉम्बे (अब मुंबई) में अंतिम सांस ली। ”सरदार पटेल की मृत्यु का समाचार पाने के तुरंत बाद नेहरु ने राज्यों के मंत्रालय को दो नोट भेजे, इनमें से एक में नेहरु ने मेनन को लिखा कि सरदार पटेल द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली के कडिल्लक(Cadillac) कार को उनके कार्यालय को वापस भेज दिया जाए। दूसरा नोट क्षुब्ध कर देने वाला था। नेहरु चाहते थे कि सरकार के जो सचिव सरदार पटेल की अंतिम क्रिया में भाग लेने के इच्छुक थे, वे अपने निजी खर्चे पर ही जाएं।
”लेकिन मेनन ने सभी सचिवों की बैठक बुलाई और जो अंतिम क्रिया में जाना चाहते थे, की सूची मांगी। नेहरु द्वारा भेजे गए ‘नोट‘ का उन्होंने कोई उल्लेख नहीं किया। जिन लोगों ने सरदार की अंतिम यात्रा में जाने की इच्छा व्यक्त की थी उनके हवाई यात्रा के टिकट का पूरा खर्चा मेनन ने चुकाया।”
No comments:
Post a Comment